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श्री नवपद ओली आराधना कैसे करे - नवपद उपासना

नवपद उपासना कैसे करे 

नवपद उपासना कैसे करे


असीम पुण्योदय के योग से आपको आर्यदेश, आर्य जाति, आर्यकुल, जैनशासन, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म जैनधर्म का श्रवण मिला है, जो आपको परम और चरम, अक्षय सुख व शान्ति दे सकता है और इसके लिए आपको मद्य (नशा), विषय (अनुकूल स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द), कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ), निद्रा और विकथा (राजकथा, देशकथा, भक्तकथा-खानपान संबंधी, स्त्रीकथा, मृदुकारुणिका-शोक-विलाप, सम्यग्दर्शन भेदिनी, चारित्रभेदिनी) रूप पांच प्रकार के प्रमाद को त्याग कर दान, शील, तप और भाव रूप धर्म को अपनाते हुए, इसके लिए पुरुषार्थ करते हुए आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर होना चाहिए।

इसमें भी बिना भाव का दान मोक्ष का साधन नहीं बनता, शील भी बिना भाव का निष्फल ही होता है और बिना भाव का तप भी भव परम्परा की वृद्धि का ही कारण बनता है, इसलिए अपनी भावनाओं को ही विशुद्ध करना चाहिए। भाव भी मन का विषय है और आलंबन-रहित मन बडे कष्ट से जीता जा सकता है, इसलिए उस मन को वश में करने के लिए सालंबन ध्यान कहा है।

धर्म के चार प्रकार बताए गए हैं: दान, शील, तप और भाव! इन चारों को आप धर्म मानते हैं? यदि इन्हें आप धर्म मानते हैं, तो धन, भोग, आहार और संसार की सब इच्छाओं को अधर्म मानना ही पडेगा। इन चारों में भी ‘भाव’ सबसे प्रमुख है। भाव अर्थात् मन का पवित्र परिणाम! शालिभद्र ने ग्वाले के भव में जिस भाव से दान दिया था, वह भाव आने में अभी अनेक भवों की जरूरत पडेगी। जिसे किसी दूसरे का लेने में आनंद आता है, उसमें तो उस ग्वाले के लडके का नाम लेने की पात्रता भी नहीं है।

दान, शील और तप ये तीनों भाव सहित होने चाहिए। भाव रहित होने पर ये तीनों निरर्थक हैं, इतना ही नहीं, अपितु संसार बढाने वाले हैं। दान, शील और तप चाहे देशविरति संबंधी हों या सर्वविरति संबंधी, इनमें भाव के मिलने पर ही ये सफल होते हैं। भाव के प्रभाव से ही ये धर्म, धर्म बन सकते हैं।

भावनाओं का आज टोटा हो गया है। दान, शील और तप में भी आज आडम्बर, दिखावा, प्रदर्शन और स्वार्थ घुस गया है। भौतिक आकाँक्षाएं इसमें घुस गई हैं। विशुद्ध रूप से कर्म-क्षय और मोक्ष प्राप्ति की एक मात्र भावना आज तिरोहित हो गई है, क्योंकि धर्म का सही स्वरूप लोग नहीं जानते। धर्म-अधर्म सब प्रायः भावों की निर्मलता के आधार पर होते हैं और भावों की तरतमता, प्रगाढता के आधार पर ही परिणामों की तरतमता, प्रगाढता होती है।

यद्यपि शास्त्रों में भावनाओं की निर्मलता के लिए बहुत प्रकार के आलंबन कहे हैं, फिर भी वास्तव में जगतगुरु श्री जिनेश्वरदेवों ने नवपद ध्यान को ही श्रेष्ठ आलंबन कहा है। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप इस प्रकार ये नवपद हैं। श्री जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म में ये नवपद सारभूत हैं, इसलिए ये कल्याण के कारणरूप हैं, इसलिए ये विधि पूर्वक आराधना करने योग्य हैं। इन नवपदों से सिद्ध बने हुए ऐसे सिद्धचक्र की उपासना करने वाले मनुष्य श्री श्रीपाल महाराजा की भाँति सभी रोगों और दुःखों से मुक्त होकर सुख पाते हैं।

अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्तप; ये नवपद परमतत्त्वरूप हैं। इनके अलावा दूसरा कोई परमार्थ नहीं है। इन नौ पदों में ही सारे जैनशासन का अवतरण है। जितने भी सिद्ध परमात्मा हुए हैं, इन नवपदों का सेवन कर ही सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं।

हमें भी नवपद के ज्ञान, नवपद की प्रीति, नवपद की भक्ति, नवपद की पूजा, नवपद के तप, नवपद की प्रदक्षिणा, नवपद के स्वरूप के चिंतन और नवपद के ध्यान के माध्यम से नवपद की उपासना करनी है। नवपद का केवल बाह्य रूप से पूजन कर लेने से काम नहीं चलेगा, बल्कि नवपद को तो जीवन में उतारना है, आत्मस्थ करना है।

जीवन-मृत्यु प्रकृति का स्वाभाविक क्रम है, घटनाचक्र है। सम्पत्ति-विपत्ति भी प्रकृति का घटनाचक्र है। सभी संयोगों में, किसी भी परिस्थिति में नवपद का स्मरण हमेशा रहना चाहिए, क्योंकि यही कल्याणकारी है। जिस प्रकार क्षेत्र में श्री सिद्धगिरि शाश्वत है, उसी प्रकार काल में अश्विन तथा चैत्र मास की ओली शाश्वती है, जिसमें नवपद की साधना-आराधना-ध्यान करना ही चाहिए।

मयणा-श्रीपाल नवपद के आराधक थे। उनकी आराधना फलवती हुई, ऐसा आप मानते हैं, लेकिन केवल ऋद्धि-सिद्धि ये नवपद के फल नहीं हैं, ये तो पत्ते और शाखाएं हैं। वे नवमें भव में मोक्ष प्राप्त करेंगे, यह असली फल है। लोकेषणा अथवा भौतिक सुख-साधनों की कामना से नवपद की आराधना नहीं करनी है, अपितु विशुद्ध रूप से आत्म-कल्याण, मोक्ष प्राप्ति की भावना से ही करनी है। भौतिक सुख-सुविधाएं तो बहुत ही तुच्छ वस्तुएं हैं, ये तो अपने आप मिल ही जाएंगी, लक्ष्य तो मोक्ष प्राप्ति का ही रहना चाहिए। एक बार नवपद अंतःकरण में बस जाए तो दुःख में दीनता नहीं आएगी और सुख में लीनता नहीं आएगी।

श्री नवपद ओली आराधना


अनंत उपकारी भगवान् महावीर की देशना अनुसार नवपद ओली आराधना आत्मकल्याण का सर्वोत्कृष्ट साधन है।

पञ्चपरमेष्ठी (५) सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र (३) एवं तप (१) कुल ९ जिनशासन के ९ रत्नों की यह आराधना है।

एक एक रत्न के जितने गुण है, उतनी क्रियाएँ की जाती है, जो गुणधर्म का रंग है, उस रंग के खाद्य पदार्थ का आयम्बिल किया जाता है।


१ प्रथम दिवस : श्री अरिहंत पद आराधना

( रंग - सफेद वर्ण ) काऊसग्ग १२ लोगस्स
प्रदिक्षणा -१२, खमासमणा -१२, स्वस्तिक -१२, आयम्बिल : चावल
नवकारवाली -२०, नमो अरिहंताणं

२ द्वित्तीय दिवस : श्री सिद्ध पद आराधना

( रंग - लाल वर्ण ) काउसग्ग ८ लोगग्स
प्रदिक्षणा - ८, खमासमणा - ८
स्वस्तिक - ८, आयम्बिल : गेहूं का
नवकारवाली - २० नमो सिद्धाणं

३ तृतीय दिवस : श्री आचार्य पद आराधना

( रंग - पीला ) काउसग्ग ३६ लोगस्स
प्रदिक्षणा - ३६, खमासमणा - ३६
स्वस्तिक - ३६, आयम्बिल : चने की दाल का
नवकारवाली - २० नमो आयरियाणं


४ चतुर्थ दिवस : श्री उपाध्याय पद आराधना

( रंग - नीला ) काउसग्ग २५ लोगस्स
प्रदिक्षणा - २५, खमासमणा -२५
स्वस्तिक - २५, आयम्बिल : मुंग का
नवकारवाली - २०, नमो उव्वझायाणं


५ पंचम दिवस : श्री साधु पद की आराधना

( रंग - श्याम ) काउसग्ग २७ लोगस्स
प्रदिक्षणा - २७, खमासमणा - २७
स्वस्तिक - २७, आयम्बिल : काली उड़द का
नावकारवाली - २०, नमो लोए सव्वसाहूणं

६ छठा दिवस : सम्यग् दर्शन की आराधना

( रंग -सफेद ) काउसग्ग 67 लोगस्स
प्रदिक्षणा - ६७, खमासमणा - ६७
स्वस्तिक - ६७, आयम्बिल : चावल का
नवकारवाली - २०, नमो दंसणस्स

७ सप्तम दिवस : सम्यग् ज्ञान पद की आराधना

( रंग - सफेद ) काउसग्ग ५१ लोगस्स
प्रदिक्षणा - ५१, खमासमणा - ५१
स्वस्तिक - ५१, आयम्बिल : चावल का
नवकारवाली - २०, नमो नाणस्स

८ अष्टम दिवस : सम्यग् चारित्र पद की आराधना

( रंग - सफेद ) काउसग्ग 70 लोगस्स
प्रदिक्षणा - ७०, खमासमणा -७०
स्वस्तिक - ७०, आयम्बिल : चावल का
नवकारवाली - २०, नमो चारित्तस्स

९ नवम दिवस : तप पद की आराधना

( रंग - सफेद ) काउसग्ग ५० लोगस्स
प्रदिक्षणा - ५०, खमासमणा - ५०
स्वस्तिक - ५०, आयम्बिल : चावल का
नवकारवाली - २०, नमो तवस्स



ज्ञानियों का कहना है, दान-धर्म-तप आराधना में सांसारिक प्रतिष्ठा भाव नही रखोगे, खाने में रूचि नही रखोगे, मन-वचन-काया को वैराग्य वीतराग भाव से रहोगें, उतना ही पुण्यफल ज्यादा एवम् शीघ्र मिलेगा।

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