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Acharya Dharmaghosh Suri M.S. Jivan Charitra | आचार्य धर्मघोषसूरि जीवन चरित्र | Jain Stuti Stavan

आचार्य धर्मघोषसूरि जीवन चरित्र

Acharya Dharmaghosh Suri M.S. Jivan Charitra | आचार्य धर्मघोषसूरि जीवन चरित्र | Jain Stuti Stavan


आचार्य श्री धर्मघोषसूरि महाराज शेठ जिनचंद्र वरहुडिया और शेठाणी चाहिणी को 5 पुत्र और 1 पुत्री थी। वो विजापुर में रहते थे। उनके पुत्र वीरधवल का लग्न होने वाला था। तब आचार्य देवेन्द्रसूरि महाराज विजापुर पधारे। उनके उपदेश में संसार की असारता , धर्म की वफादारी और वैराग्य के प्रवाह की ज़ोरदार रसधारा बहती थी । 

वीरधवल को गुरुदेव के उपदेश की असर हुई। और विवाह का विचार छोड़ दीक्षा लेने की इच्छा हुई। छोटे भाई भीमदेव को भी दीक्षा लेने के तैयार किया । दीक्षा का वरघोडा निकला। आचार्य देवेन्द्रसूरि के पास मे विक्रम संवत 1302 में विजापुर में वीरधवल और भीमदेव ने दीक्षा ली। और नाम रखा मुनि श्री विद्यानंद और मुनि श्री धर्मकीर्ति। आचार्य देवेन्द्रसूरि ने विक्रम संवत 1323 में पालनपुर में प्रहलादन पार्श्वनाथ के जिनालय के उपाश्रय में पंन्यास विद्यानंद को आचार्य पद और धर्मकीर्ति को उपाध्याय पद पर आरूढ़ किया । 

संवत 1327 में आचार्य देवेन्द्रसूरि महाराज साहेब का मालवा में कालधर्म हुआ। गुरुदेव के कालधर्म के 13 दिन के बाद आचार्य विद्यानंदसूरि महाराज का भी कालधर्म हुआ। सभी लोगो ने उपाध्याय श्री धर्मकीर्ति को योग्य जान कर गच्छनायक बनाने का निर्णय किया। संवत 1328 में आचार्य पद दिया गया और आचार्य धर्मघोषसूरि नाम रखा गया। आचार्य धर्मघोषसूरिजी मांडवगढ पधारे। तब गरीब श्रावक पेथडे उनके पास से श्रावक के 12 व्रत लिये। गुरु की सूचना से पेथड ने परिग्रह परिमाण व्रत 5 लाख का लिया। गुरु की असीम कृपा से पेथड शाह अत्यधिक धनवान हुए । पेथडशाह ने आचार्य धर्मघोषसूरि महाराज की अध्यक्षता में शत्रुंजय का छ'री पालित संघ निकाला। पेथडशाह ने आचार्य धर्मघोषसूरि का मांडवगढ में प्रवेश करवा कर चातुर्मास करवाया । पेथड शाह और प्रथमणी ने 32 वर्ष की उम्र में पूज्य श्री से ब्रह्मचर्य का व्रत स्वीकार किया । आचार्य धर्मघोषसूरि ने गिरनार तीर्थ की यात्रा की। संस्कृत में गिरनार तीर्थ कल्प ( 32 श्लोक ) की रचना की।

 सौराष्ट्र पाटण के समुद्र किनारे खड़े -खड़े रहकर विनंती से ' मंत्रमय समुद्रस्तोत्र ' बनाया। जिससे समुद्र में बड़ी भरती आयी और उसमें से विभिन्न प्रकार के रत्न बहार निकल कर आचार्य श्री के चरणों में रत्नों का ढेर लग गया । आचार्यश्री ने मंत्र ध्यान से सौराष्ट्र पाटण में शत्रुंजय के पुराने कपर्दी यक्ष प्रगट हुआ। वो समकित बना और जिन प्रतिमा के अधिष्ठायक बने। जैन साधु एक योगी के डर से उज्जैन में आते ही नहीं थे। एक बार आचार्य श्री सपरिवार उज्जैन पधारे। योगी ने मंत्र बल से साधुओं के उपाश्रय में सर्प और बिच्छू छोड़े। आचार्य श्री ने एक घड़े का मुख कपडे से ढक दिया और जाप शुरु कर दिया । योगी को मंत्र के प्रभाव से सर्प दंश और बिच्छू दंश की भयंकर पीड़ा होने लगी चीखता चिल्लाता हुए उपाश्रय में आया और आचार्यश्री के चरणों में गिर पड़ा और माफ़ी माँगी और उज्जैन नगरी में आगे से किसी भी जैन साधुओं को हैरान नहीं करने का प्रण ले लिया । एक बार गोधरा नगर के उपाश्रय मे साधुओं का रात्री विश्राम था तब वहाँ के उपाश्रय के दरवाजे मंत्र जाप से बंध करते थे। 

एक बार साधुओं से मंत्र जाप करना भूल गये। इसलिये शाकिनीओ ने रात में आकर आचार्यश्री की पाठ उठाकर ले गयी । आचार्यश्री ने उन्हें एक ही जगह पर सम्मोहित कर के खम्बों की भाँति खड़ा कर दिया । शाकिनीओ ने कहाँ की अब हम आपके गच्छ को हेरान नहीं करने का वचन दिया , तब उन्होंने छोड दिया। ब्रह्ममंडल में एक दिन आचार्य धर्मघोषसूरिजी को सर्प ने दंश दिया और उसका जहर चढ़ने लगा। पूरा संघ अत्यधिक चिंतित हो गया। आचार्यश्री ने संघ से कहाँ की " सुबह नगर के पूर्व दिशा के द्वार पर कठियारा लकड़े की भारी लायेंगा। उसमे विषहरणी वेल होगी। वो सुंठ आदि के साथ घिसके सर्प दंश पर लगाना। " संघे ऐसे किया और ज़हर उतर गया। आचार्यश्री ने तब से जिंदगी भरके लिए 6 विगई का त्याग किया। 

आचार्यश्री ज्वार का आहार लेते थे । आचार्यश्री ने एक ही रात में आठ चमकवाली जय ऋषभ पद से शुरू होती स्तुति की रचना की थी। आचार्यश्री ने बहुत से ग्रंथों की रचना की है।आचार्यश्री ने संवत 1332 में अपने शिष्य सोमप्रभ को आचार्य पद दिया। आचार्य श्री धर्मघोषसूरि का विक्रम संवत 1357 में कालधर्म हुआ।

 आचार्य श्री धर्मघोषसूरि महावीर स्वामी की 46वी पाट पर हुए थे ।

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