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धनतेरस: धन की पूजा या आत्मा का उत्सव? जानिए 'धन्य तेरस' का गहरा रहस्य

धनतेरस: धन की पूजा या आत्मा का उत्सव? जानिए 'धन्य तेरस' का गहरा रहस्य

धनतेरस: धन की पूजा या आत्मा का उत्सव? जानिए 'धन्य तेरस' का गहरा रहस्य
   

जब धनतेरस का त्योहार आता है, तो हमारे दिमाग में तुरंत सोना, चांदी, नए बर्तन और धन की देवी लक्ष्मी की छवियां आती हैं। हम इसे धन और समृद्धि का दिन मानते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस दिन का एक गहरा, अधिक आध्यात्मिक महत्व भी है, खासकर जैन धर्म में? जैन परंपरा में इसे 'धन तेरस' नहीं, बल्कि 'धन्य तेरस' कहा जाता है—एक ऐसा दिन जो भौतिक संपत्ति के बारे में कम और आध्यात्मिक धन के बारे में अधिक है।

आइए इस त्योहार के पीछे छिपे असली अर्थ को जानें।

'धन तेरस' नहीं, यह 'धन्य तेरस' है

जैन धर्म के अनुसार, इस दिन का मूल नाम 'धन्य त्रयोदशी' था। 'धन्य' का अर्थ है धन्य या मंगलकारी। यह दिन इसलिए धन्य है क्योंकि आज से लगभग 2600 साल पहले, 24वें तीर्थंकर, भगवान महावीर, अपने जीवन-मृत्यु के चक्र को समाप्त करने के लिए अंतिम ध्यान में लीन हो गए थे।

उन्होंने अपनी सभी कषायों (क्रोध, मान, माया, लोभ) पर विजय प्राप्त कर ली थी और अपनी बची हुई कर्म प्रकृतियों को नष्ट करने के लिए शुक्ल ध्यान में स्थित हो गए थे। यह उनके मोक्ष या निर्वाण की दिशा में अंतिम कदम था। इसलिए, यह दिन भौतिक 'धन' के लिए नहीं, बल्कि उस 'धन्य' क्षण के लिए मनाया जाता है जब एक महान आत्मा अपनी अंतिम मुक्ति की तैयारी कर रही थी।

ध्यान तेरस: जब भगवान महावीर योग-निरोध में गए

इस दिन को 'ध्यान तेरस' भी कहा जाता है। भगवान महावीर ने पावापुरी में राजा हस्तिपाल के यहाँ अपना अंतिम चातुर्मास (वर्षावास) बिताया। जब उन्होंने महसूस किया कि उनका अंत निकट है, तो कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन, वे सभी सांसारिक गतिविधियों को रोककर योग-निरोध की स्थिति में चले गए।

योग-निरोध क्या है? यह मन, वचन और काया (शरीर) की सभी गतिविधियों का पूर्ण विराम है। यह 14वें गुणस्थानक (आध्यात्मिक विकास का चरण) से ठीक पहले की प्रक्रिया है, जहाँ आत्मा पूरी तरह से क्रियाहीन हो जाती है।

यह गहन ध्यान दो दिनों तक चला, और अंत में, कार्तिक अमावस्या की रात को उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। इसलिए धनतेरस का दिन उस महान ध्यान की शुरुआत का प्रतीक है।

आधुनिक उत्सव बनाम जैन आदर्श: अपरिग्रह का सिद्धांत

आजकल धनतेरस पर सोना, चांदी और बर्तन खरीदना शुभ माना जाता है। लोग मानते हैं कि ऐसा करने से घर में धन और समृद्धि आती है। हालाँकि, यह प्रथा जैन धर्म के मूल सिद्धांतों में से एक 'अपरिग्रह' (Non-possessiveness) के विपरीत है।

अपरिग्रह का अर्थ: इसका मतलब केवल बाहरी चीजों का त्याग करना नहीं है, बल्कि उन चीजों के प्रति स्वामित्व की भावना (यह मेरा है) का त्याग करना है। असली धन बाहरी वस्तुओं के संग्रह में नहीं, बल्कि आंतरिक संतुष्टि और आत्म-ज्ञान में निहित है। जब व्यक्ति भीतर से पूर्णता का अनुभव करता है, तो बाहरी वस्तुओं को इकट्ठा करने की दौड़ अपने आप समाप्त हो जाती है।

धन को 'धन्य' कैसे बनाएं?

जैन शास्त्रों में धन के उपयोग के आधार पर उसके अलग-अलग नाम दिए गए हैं:
धन: जब स्वयं के लिए उपयोग किया जाता है।
लक्ष्मी: जब दूसरों की भलाई के लिए उपयोग किया जाता है।
अलक्ष्मी: जब अनैतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है।

महालक्ष्मी: जब आध्यात्मिक और धार्मिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है।

धन्य तेरस का दिन हमें अपने धन को 'धन्य' बनाने का अवसर देता है—अर्थात्, अपनी संपत्ति का उपयोग ऐसे कार्यों में करें जो हमारे जीवन को सार्थक और मंगलकारी बनाएं। दान-पुण्य और जरूरतमंदों की मदद करना इस दिन का सबसे पवित्र कार्य है।

इस धन्य तेरस पर हमारा संकल्प क्या हो?

भौतिक वस्तुएं आपको केवल अस्थायी सुख दे सकती हैं, लेकिन सच्चा आनंद और शांति आंतरिक आत्मा से आती है। ज्ञान ही सबसे बड़ी कुंजी है जो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह की संपत्ति का द्वार खोलती है।

इस धनतेरस, अगर आप घर में कुछ शुभ लाना चाहते हैं, तो भौतिक वस्तुओं के साथ-साथ ज्ञान का एक उपकरण भी लाएं—एक अच्छी किताब, एक धार्मिक ग्रंथ, या कोई ऐसी चीज जो आपके ज्ञान और विवेक को बढ़ाए।

आइए, इस धन्य तेरस पर हम अपनी सच्ची संपत्ति को पहचानें और अपने जीवन को भौतिकता से आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का संकल्प लें।

(यह लेख विभिन्न जैन वेबसाइटों, व्याख्यानों और पुस्तकों से संकलित जानकारी पर आधारित है। किसी भी त्रुटि के लिए मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडम्।)

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