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श्री पोष दशमी की आराधना विधि - Posh Dashmi Tap Vidhi

Posh Dashmi Tap Vidhi

पौष मासमें पौष वदि दशमी पौष दशमी' के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन श्री पार्श्वनाथ भगवान् का जन्म कल्याणक है। इस दिन दोनों समय प्रतिक्रमण करना चाहिये। जहां श्री पार्श्वनाथ स्वामी का तीर्थ है वहां यात्रा करने को जावे। कदाचित् वहां न जा सके तो जहां श्री पार्श्वनाथजी की स्थापना अथवा देवालय हो वहां महोत्सव पूर्वक दर्शन करने जावे।

जलयात्रादिक महोत्सव करके अष्टोत्तरी स्नात्र करावे। अष्ट प्रकारी एवं सत्रहभेदी पूजा विविध आडम्बरों सहित करे। पीछे गुरु महाराज के समीप जाकर पौप दशमी का व्याख्यान सुने। पीछे एकासन आदि का पञ्चक्खाण करे। चतुर्विध आहार का नियम लेवे। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए भूमि पर शयन करे। हो सके तो रात्रि जागरण करे और गीत, गान, नाटकादि करे। जन्म कल्याणक स्तवन, पास जिनेसर जग तिलो ए, वाणी ब्रह्मा वादिनी इत्यादि पार्श्वनाथ स्वामी के गुणगर्भित स्तवन पढ़े।

शास्त्रों में विधान है कि नवमी, दशमी और एकादशी इन तीनों दिन एक बार भोजन करना चाहिये। इस तरह मन, वचन और काया से जो भी भव्य दस वर्ष तक इस पर्व का आराधन करेंगे वे इस भव में तो धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, आदि सुख सम्पदा को प्राप्त करेंगे तथा परभव में देवादिक ऋद्धियों को प्राप्त करते हुए क्रमशः निर्वाण प्राप्त करेंगे। इसीलिये इस पर्व की भी समुचित आराधन करना चाहिये।

श्री पार्श्वनाथजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र

श्री पार्श्वनाथजी का संक्षिप्त जीवन चरित्र


श्री पार्श्वनाथजी २३ वें तीर्थङ्कर थे। आज से लगभग २८०० वर्ष पहिले काशी देश की बनारस नगरी में अश्वसेन राजा राज्य करते थे। ये बड़े प्रतापी सरल एवं न्यायप्रिय थे। इनकी रानी वामादेवी पतिव्रता और विदुषी थी। इन्हीं रानी की पवित्र कोख से, विकम सवत् से १०० वर्ष पूर्व पौप वदि दशमी के दिन इन्होंने जन्म लिया। नगर भर में अपूर्व उत्सव मनाया गया। ज्योतिषी के कथन पर, कि "ये आपका पुत्र बड़ा यशस्वी होगा। पारस के समान जो लोहे को भी सोना बना देता है, लोगों को धर्ममार्ग बता कर सुखी करेगा” पिता ने इनका पार्श्व कुमार रख दिया। यौवनावस्था को प्राप्त होने पर राजा प्रसेनजित की कन्या प्रभावती से इनका विवाह सम्पन्न हुआ।

एक समय इन्होंने सुना कि कमठ नाम का तपस्वी इस नगर में आया है अपने चारों ओर अग्नि जला कर तप करता है। ये भी हाथी पर सवार होकर गये। अवधिज्ञान से प्रभु ने लकड़ी में सर्प देखा और उस तपस्वी से कहा देख उस लकड़ी में सर्प जल रहा है। सन्यासी ये सुनकर आगबबूला हो गया। तब कुमार ने लकड़ी फड़वाई। वास्तव में उसमें तड़पता हुआ सर्प देख कर सभी को भारी विस्मय हुआ। पार्श्व कुमार ने उसे ॐ हीं असिआउ साय नमः, नमस्कार मन्त्र सुनाया जिससे वह मरकर धरणेन्द्र हुआ और कमठ मर कर मेघमाली नाम का देव हुआ।
कुछ समय पश्चात् लोकांतिक देवताओंने प्रभु से प्रेरणा की। प्रभु ने भी जीवों को सच्चा मार्ग दर्शाने के लिए एक वर्ष तक वर्षी दान देकर पौष वदि एकादशी के दिन ३०० पुरुषों के साथ दीक्षा धारण की।
इस प्रकार दीक्षा लेकर प्रभु कठिन तपस्या करने लगे। एक समय प्रभु जब ध्यानावस्थित खड़े थे, उस समय मेघमाली ने अपना पूर्व भव स्मरण करके, अपने तिरस्कार का बदला लेने के लिये प्रभु पर अति बृष्टि की। शीघ्र ही जल भगवान् के गले तक पहुंच गया। तब धरणेन्द्र ने झट आकर भगवान को एक कमल के सिंहासन पर बिठाया और अपना सर्प का रूप बना कर अपने फणों से उनके सिर पर छाया की! ये देखकर कमठ को लज्जा आई और वो प्रभु से क्षमा मांग. नमस्कार कर स्वस्थान को चला गया।
इसी प्रकार अनेक तपस्यायं करते उपसर्गों को सहते हुए भगवान् को चैत्र वदि चतुर्दशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
प्रभु ने विचर विचर कर लोगों को उपदेश देना आरंभ किया। अनेक भटकते हुए जीवों को संसाररूपी महासागर से पार लगाया।
विक्रम संवत् से ८२० वर्ष पूर्व, श्रावण वदि अष्टमी के दिन सम्मेतशिखर पर्वत पर १०० वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके निर्वाण पद को प्राप्त किया। इसी कारण आजकल इस पर्वत को पार्श्वनाथ हिल (पहाड़ी ) भी कहते हैं।

।। श्री पोष दशमी की आराधना विधि ।।

यह तप भगवान पार्श्वनाथ के जन्म कल्याणक की आराधना निमित्त किया जाता है। इस समय सभी तीर्थङ्करों की अपेक्षा प्रभु पार्श्व के उपासक वर्ग अधिक हैं। इनके नाम सुमिरण का साक्षात प्रभाव देखा जाता है। इसी कारण जैन समाज में जैसे चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (भ. महावीर का जन्म कल्याणक) के दिन का महत्त्व है वैसे ही पौष कृष्णा दशमी दिन का भी माहात्म्य है।

जैनाचार्यों के मन्तव्यानुसार इस तप के करने से मनोकामना सिद्ध होती है। इस लोक में अपूर्व सम्पदा की प्राप्ति होती है, परलोक में इन्द्रादि पद प्राप्त होता है और अन्तत: मोक्ष पद का अधिकारी बन जाता है।
वर्तमान में पौष दशमी का तप करने वाले आराधक वर्ग की संख्या बढ़ती जा रही है।तपसुधानिधि (भा. 2, पृ. 173) के अनुसार इस तप में पौष वदि नवमी के दिन मिश्री (साकर) के पानी से एकासना करें और ठाम चौविहार करें। फिर दशमी के दिन ठाम चौविहार पूर्वक एकासना करें। फिर एकादशी के दिन तिविहार एकासना करें, इस प्रकार तीन दिन की आराधना करते हैं।

यह पौष दशमी तप तीन रूपों में किया जाता है -

1. मध्यम से दस वर्ष और दस महीना, पौष कृष्णा 9, 10, 11 इन तीन दिनों की आराधना की अपेक्षा।
2. उत्कृष्ट से यावज्जीवन, पौष वदि दसमी की आराधना की अपेक्षा। 3. जघन्य से दस वर्ष पर्यन्त, पौष वदि दसमी की आराधना की अपेक्षा।

इस तपोयोग में तीनों दिन ब्रह्मचर्य का पालन करें, उभय सन्ध्याओं में प्रतिक्रमण करें, जिनालय में स्नात्रपूजा-अष्टप्रकारी पूजा करें और गुरु उपदेश सुनें।
तप की समाप्ति के बाद भव्य उधापन महोत्सव करना चाहिए ।

प्रथम दिवस - पौष वदी ९
तप:- शक्कर के पानी का एकासणा (ठामचौविहार)
विधी : साथिया 12 , खमासमण 12 , प्रदक्षिणा 12 , 12 लोग्गस्स नो काऊसग , 20 माला

द्वितीय दिवस - जन्म कल्याणक दिन पौष वदी १०
तप:- खीर का एकासणा (ठामचौविहार) के साथ
विधी : साथिया 12 , खमासमण 12 , प्रदक्षिणा 12 , 12 लोग्गस्स नो काऊसग , 20 माला

तृतीय दिवस - दिक्षा कल्याणक पौष वदी ११
तप:- सामान्य एकासणा कर तिविहार का पच्चक्खान करे ।
विधी : साथिया 12 , खमासमण 12 , प्रदक्षिणा 12 , 12 लोग्गस्स नो काऊसग , 20 माला

पौष दशमी तप में प्रदक्षिणा का दुहा: -

परम पंच परमेष्ठिमां,परमेश्वर भगवान ।
चार निक्षेपे ध्याइऐ,नमो नमो श्री जिनभाण।

पौष दशमी जाप मंत्र आराधना :-

इन दिनों क्रिया करते हुए प्रभु पार्श्वनाथ का जाप करें
  • प्रथम दिवस - ॐ ह्रीँ श्री पार्श्वनाथ परमेष्ठी ने नमः
  • द्वितीय दिवस - ॐ ह्रीँ श्री पार्श्वनाथाय अर्हते नमः
  • तृतीय दिवस - ॐ ह्रीँ श्री पार्श्वनाथाय नमः
  • 3 दिन में 125 माला - श्री पार्श्वनाथ अर्हते नमः,
  • 3 दिन में 125 माला - ॐ ह्रीं श्रीं धरणेन्द्र पद्मावती परिपूजिताय श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय ह्रीं नमः
* 3 दिन में दोनों मंत्रोमे से कोई एक 125 माला अवश्य गिने 


साथिया- 12 खमा. - 12 कायो.- 12 माला- 20

पौष दशमी तप उद्यापन विधि

– इस तप के पूर्ण होने पर 10 पुढे, 10 रुमाल (पुस्तक बांधने के), 10 जापमाला, 10 चन्द्रोवा, रत्नत्रय के 10-10 उपकरण, प्रभु पार्श्वनाथ की 10-10 प्रतिमाएँ आदि अर्पित करें।

इस प्रकार उपरोक्त विधि से तप के प्रारंभ के साथ प्रतिमास की कृष्णा दशमी (वद दशम ) को एकासणा का तप करना चाहिए और पार्श्वनाथ प्रभु की आराधना करनी चाहिए । इस प्रकार यह तप 10 वर्ष 10 माह तक करना चाहिए ।

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